जो मनुष्य किसी राजमान्य पंडित अथवा अपर सत्पुरुषका अनादर करना चाहता है उसकी मूर्खता प्रगट करनी चाहिये॥)
तावत्कोकिल विरसान् यापय दिवसान् वनान्तरे निरसन्॥
यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति॥७॥
हे कोकिल वनांतर में वास करके विरस दिनों को (जिन दिनों में फूल नहीं होते अर्थात् हेमंत और शिशिर ऋतु) तब तक काट जबतक कोई आम्रवृक्ष भ्रमर युक्त होकर न खिलै (गुणग्राहक न होने से गुणी जनों का समाधान इस अन्योक्ति से करना चाहिये॥)
कमलिनि मलिनीकरोषि चेतः।
किमिति बकैरवहेलिताऽनभिज्ञैः॥
परिणतमकरंदमार्मिकास्ते।
जगति भवंतु चिरायुषो मिलिंदाः॥८॥
हे कमलिनि! यदि तेरे उत्तम मकरंद के मर्म जाननेवाले भ्रमर, संसार में जीवित हैं तो बकौं की हेलना से तू अपने चित्त को क्यों खेदित करती है? (किसी पंडित की अवज्ञा यदि मूर्ख ने की तो उसका समाधान इस अन्योक्ति द्वारा भली भांति हो सकता है)।
नितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप मा कदापि कृथाः।