पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१७७

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विलासः४]
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भाषाटीकासहितः।

तां द्राक्षायैरपि बहुमतां माधुरीमुद्गिरंतीं कृष्णे-
त्याख्यां कथय रसने यद्यसि त्वं रसज्ञा[१]॥१७॥

हे जिह्वे! यदि तू रसज्ञा [रस को जाननेवाली] है तो हृदय में निमग्न होने से जो अवर्णनीय परमोत्कृष्ट प्रीति को देती है (और) कंठमें लग्न होने से अंतर के अंधकार समूह को भली भांति नाश करती है उस, द्राक्षादि पदार्थों से भी विशेष माधुर्य्यता को देनेवाली 'कृष्ण' इस आख्या को कह।

संत्येवास्मिञ्जगति बहवः पक्षिणोरम्यरूपास्तेषांमध्ये मम तु महती वासना चातकेषु।
यैरध्यक्षस्थ निजसखं नीरदं स्मारयद्भिश्चित्तारूढं भवति किमपि ब्रह्म कृष्णाभिधानम्॥१८॥

इस संसारमें अनेक रम्यरूप पक्षी हैं, परंतु उन सबमें मेरी विशेषवासना चातक में है; कारण, उसके द्वारा उसके मित्र मेघका स्मरण होनेसे कृष्णनामक ब्रह्म चित्तमें आरूढ़ होता है ('स्मरण' अलंकारहै)

विष्वद्रीच्या भुवनमखिलं भासते यस्य भासा
सर्वासामप्यहमिति विदां गूढ़मालंबनं यः।
तं पृच्छंति स्वहृदयमनावेदिनो विष्णुमन्यान-
न्यायोऽयं शिव शिव नृणां केन वा वर्णनीयः॥१९॥


  1. 'मंदाक्रांता' छंद है।
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