मरुस्थली में व्याकुल हुआ, हाय! जो मैं उसकी सर्वथा उपेक्षा करनी योग्य नहीं।
विदित्वेदं दृश्यं विषमरिपुदुष्टं नयनयोविधायांतर्मुद्रामथ सपदि विद्राव्य विषयान्।
विधूतांतर्ध्वांतो मधुरमधुरायां चिति कदा निमग्नः स्यां कस्यांचन नवनभस्यांबुद्रुचौ॥१३॥
इस संसारको विषमशत्रुवत् दुष्ट जान, नेत्रों की मुद्रा को अंतःकरण में स्थापित कर, और (समस्त) विषयों को शीघ्र ही त्याग, अज्ञानान्धकारविगत् होत्साता नवीनमेघतुल्यकांतिवाली (श्रीकृष्ण की) अत्यंत मधुर व अवर्णनीय चैतन्यता में कब निमम होऊंगा?
मृद्धीका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं
पयः स्वार्यातेन सुधाप्यधायि कतिधा रंभा-
धरः खंडितः। सत्यं ब्रूहि मदीय जीव भवता
भूयो भवे भ्राम्यता कृष्णेत्यक्षरयोरयं मधुरिमो-
द्गारः क्वचिल्लक्षितः॥१४॥
हे ममजीव! पुनः पुनः संसारमें भ्रमण करके तूने द्राक्षा का स्वाद लिया, शर्करा खाई, उत्तम दुग्धपिया, स्वर्गमें सुधा का भी आस्वादन किया, अनेक वार देवांगनाधर खंडित किये परंतु सत्य कहना, "कृष्ण" इन अक्षरोंका सा मधुर उद्दार कहीं देखा? अर्थात् कहीं नहीं।