वाणी से (तू ने) जो शिक्षा दी, उसे, मैं निर्लज्ज और अहंकारयुक्त होत्साता स्वम में भी स्मरण नहीं करता; ऐसे अनेक अपराध करनेवाले मुझे फिर भी तू अपने जनौ (की गिनती) में गिनता है, तस्मात् हे यदुपते! तुझसे (अधिक दूसरा) दयालु नहीं (और) मुझसे (अधिक दूसरा उन्मत्त
नहीं है।
पातालं व्रज याहि वा सुरपुरीमारोह मेरोः शिरः
पारावारपरंपरां तर तथाप्याशा न शांतास्तव॥
आधिव्याधिपराहतो यदि सदा क्षेमं निजं वांछसि
श्रीकृष्णेति रसायनं रसय रे शून्यैः किमन्यैः श्रमः॥११॥
पाताल में प्रवेश कर, वा इन्द्र लोकको प्राप्त हो, वा सुरु पै आरोहण कर, वा सप्तसमुद्रके पार जा, परंतु तेरी भाशा शांत नहीं, (इससे) आधिव्याधिसे पराहतहुए (हे न!) यदि तू सदाके लिए अपनी कुशल चाहता है तो नीरुणरूपी रसायनको सेवन कर, वृथा अन्य परिश्रममें कुछ अर्थ नहीं।
गणिकाजामिलमुख्यानवता भवता बता मपि॥
सीदन्भवमरुगर्ते करुणामूर्ते न सर्वथोपेक्ष्यः१२॥
हे करुणामूर्ते भगवन्! गणिका और अजामिलादिक महान पातकियों) को उद्धार करनेवाले तुझे, संसाररूपी