षय होवै (मेरा मन इस मेघमाला का ध्यान किया करै यह भाव) इस श्लोक में मेघमाला को कृष्णमूर्तिमान उसकी आधिक्यता दिखाई है:-मेघमाला के जल देने से सूर्य का आतप शांत होता है परंतु कृष्णमूर्तिरूपी मेघमाला के स्मरण मात्र से ताप नष्ट होते है, मेघमाला के विद्युल्लताओं की कांति अंगशील है परंतु कृष्णचन्द्र के अंग की काति सदैव स्थिर है; मेघमाला आकाशका आश्रय लेती है, कृष्णमूर्ति यमुना कूल के परम पावन कदंबादि तरुवरों का अवलंब लरती है।
कलिंदगिरिनंदिनीतटवनांतरं भासयन् सदा पथि गतागतश्रमभरं हरन् प्राणिनाम्।
लतावलिशतावृतो मधुरया रुचा संभृतो ममाशु हरतुश्रमानतितरां तमालद्रुमः॥४॥
यमुनाकूलके उपवनमें प्रकाशवान, मनुष्यों के मार्गसंभूत गतागत भ्रम भारको हरनेमें (सदैव) समर्थ, अनेक लताओं से आच्छादित, मनोहर कांति संयुक्त, तमाल तरुवर मेरे महान परिश्रमको शीघही हरण करै (इसमें तमाल वृक्षकी कृष्णसे साम्यता की हैः-यमुनाके वनांतरों में दोनों [कृष्णतमालद्रुम] दीप्तिमान हैं, तमाल पथिकोंके मार्गजनित श्रमको दूर करता है, कृष्ण प्राणियोंके जन्म मरणको नाश करते हैं, तमालको लताओंने आवृत किया है, कृष्णचन्द्रको गोपकन्याओंनें; कांतिमान दोनौं ही हैं.)