त्तरं विनयमर्थमयं नयं च।
एतान् गुणानशरणानथ मां च हित्वा हा हंत सुंदर कथं त्रिदिवं गताऽसि॥१४॥
हे सुंदरि! उज्ज्वल लावण्य, अतुल शील, लोकोत्तर विनय, अर्थपूरित नीति, इन शरणहीन गुणों को और मुझको (भी) छोड हाय (तू) किस प्रकार स्वर्गलोक को गई? (उपरोक्त सर्व गुण तुझ में थे, परंतु अब तेरे न रहने से वे अनाथ हो गए, कारण, उनकी शरणदात्री एक तूही थी यह भाव)
कांत्या सुवर्णवरया परया च शुद्धयानित्यं स्विकाः खलु शिखाः परितः क्षिपंतीम्।
चेतोहरा मपि कुशेशयलोचने त्वां जानामि कोपकलुषो दहनो ददाह॥१५॥
हे कमलनयने! श्रेष्ठ सुवर्णके समान (तेरी) कांति और परम शुद्धिसे, अपनी शिखा सर्व और पराभविन (देख,) तुझ मनोहारिणीको भी, मेरे जान अग्निके क्रोधित होकर दहन किया (तेरी कांति और शुद्धि अपनी ज्वाला से भी अधिक देख अग्निको रोष उत्पन्न हुआ इसीसे उसने तुझे दग्ध किया यह भाव)
कर्पूरवर्तिरिव लोचनतापहंत्री फुल्लांबुजस्रगिव कंठसुखैकहेतुः।
चेतश्चमत्कृतिपदं कवितेव रम्या नम्या नरीभिरमरीव हि सा विरेजे॥१६॥