सुदृशो जितरत्नजालया सुरतांतश्रमबिंदुमालया।
अलिकेन च हेमकांतिना विदधेकाऽपि रुचिः परस्परम्[१]॥१७१॥
सुलोचनी (नायिका की, सुरत के अंत में उत्पन्न हुई रत्नजाल को जीतने वाली श्रमकणों की माला और सुवर्णवर्ण ललाट, परस्पर विचित्र शोभा देते है (एक की शोभा दूसरे से कहा इससे 'अन्योन्य' अलंकार हुआ)
परपूरुषदृष्टिपातवज्राहतिभीता हृदयं प्रियस्य सीता।
अविशत् परकामिनीभुजंगीभयतः सत्वरमेव सोऽपि तस्याः[२]॥१७२॥
परपुरुष के दृष्टिपातरूपी वज्रप्रहार के भय से सीता ने प्रिय [रामचंद्र] जी के हृदय में प्रवेश किया; (और) परस्त्रीरूपी भुजंगी [सर्पिणी] के भय से उस [रामचंद्र] ने भी (सीताजी के हृदय मे) शीघ्रही प्रस्थान किया-यह भी 'अन्योन्य' अलंकार है।
अंगानि दत्त्वा हेमांगि प्राणान् क्रीणासि चेन्नृणाम्।
युक्तमेतन्न तु पुनः कोणं नयनपद्मयोः॥१७३॥
हे हेमांगि! अंगौं को देकर मनुष्यों के प्राण तू जो मोल लेती है सो उचित हैं परंतु फिर कमलनयनों के कटाक्ष से (उनके प्राण का क्रय करना योग्य) नहीं (नयनपद्मकोण