हे गौराङ्गि! अपनी योग्यता को न देख बहुत गर्व न कर; वनप्रेदश में नाना प्रकार के फलौं से भारवती कितनी ही लता शोभायमान हैं (तेरे पास तो कुचरूपी दो ही फल होते हैं परंतु लताओं में अनेक फल होते हैं और तिस पर भी वे अपने ऐश्वर्य का गर्व न कर सबको हाथ लगाने देती हैं यह भाव)
इयमुल्लसिता सुखस्य शोभा परिफुल्लं नयनां बुजद्वयं ते।
जलदादिभयं जगद्वितन्वन् कलितः क्वापि किमालि नीलमेघः[१]॥१४८॥
तेरे मुख की शोभा उल्लसित और नयनकमलद्वय प्रफुल्लित हैं; हे आलि! जगत को जलदपटलमय करनेवाले नीलमेघ [कृष्णचंद्र] को क्या कहीं देखा है? (कृष्ण को अवलोकन कर मुख में प्रसन्नता के चिन्ह प्रगट करनेवाली नायिका के प्रति सखीकी उक्ति है)
आसायं सलिलांतः सवितारमुपास्य सादरं तपसा।
अधुनाब्जेन मनाक् तब मानिनि तुलना मुखस्याऽपि॥१४९॥
हे भामिनी! सायंकाल से जल मे आदरपर्वक तपस्या से सूर्यनारायणकी उपासना कर अब अर्थात् प्रातःकाल में कमल ने तेरे मुखकी कुछ तुलना पाई है (तेरा मुख कमल से भी विशेष शोभायमान है यह भाव)
- ↑ 'माल्यभारा' छंद।