पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१४२

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।


लेने में कुशल हैं उसी प्रकार चंद्र भी क्यों न होना चाहिए? (यह किसी विरहिणीकी उक्ति है। दुष्टसंगरूपी कारणके अनुसार प्राणघातरूपी कारजका वरणन करने से 'सम' अलंकार हुआ)

लभ्येत् पुण्यैर्गृहिणी मनोज्ञा तया सुपुत्राः परितः पवित्राः।
स्फीतं यशस्तैः समुदेति नित्यं तेनास्य नित्यः खल नाकलोकः॥१४२॥

पुण्यसे सुंदर स्त्री मिलती है; स्वीसे सच्चरित्र सुपुत्र (होते हैं); पुत्रौंसे विमल यशका दिन दिन उदय होता है; और यशसे इसको[१] (यह लोक) नित्य स्वर्लोकतुल्य (हो जाता है)। इस पद्यमें एक वस्तु दूसरेका कारण है इससे 'कारण माला' अलंकार हुआ।

प्रभुरपि याचितुकामो भजते वामोरु लाघवं सहसा।
यदहं त्वयाऽधरार्थी सपदि विमुख्या निराशतां नीतः॥१४३॥

हे वामोरु[२]! याचना करने वाले प्रक्षु [स्वामी समर्थवानपुरुष] भी सहसा लघुत्वको प्राप्त होते हैं। जिसप्रकार तुझ पराग्मुखी के अधर (पान)की इच्छा करनेवाला में शीघ्रही निराशता को पहुँचा हूं (अधर चुंबन करने का अधिकार भी होकर निराश किया जाना याचना का महाही दुखद फल


  1. जिस पुरुषको ये पदार्य प्राप्त हैं उसको।
  2. मनोहरोरुमुंदर है जँघा जिसकी ऐसी।