न मिश्रयति लोचने सहसितं न संभाषते कथा-
सुतव किं च सा विरचयत्यरालां ध्रुवम्। विपक्ष
सुदृशः कथामिति निवेदयंत्या पुरः प्रियस्य
शिथिलीकृतः स्वविषयेऽनुरागग्रहः[१]॥१४०॥
सपत्नी मुग्धा नायिकाके ऊपर विशेष प्रीति करनेवाले नायकसे मुग्धाके दोष वरणन करके उसके विषयमें नायकको अरुचि उत्पन्न करनेवाली प्रौढा नायिकाकी उक्ति है:- 'वह (मुग्धा) नयनौंको नहीं मिलाति है; तव संबन्धी कथामें सहास्य (मुख होकर) भाषण नहीं करती किंतु भृकुटी वक्र चढाती है। इस प्रकार सपनी की कथाको प्रियके सन्मुख निवेदन करनेवाली नायिकाने नायिकके मुग्धाविषयक अनुरागको शिथिल [न्यून] किया। (असत्य बातका सत्यैव प्रतिपादन करनेसे 'विषम' अलंकार हुआ)
वड़वानलकालकूटवन् मकरव्यालगणैः सहैधितः।
रजनीरमणो भवेन्नृणां न कथं प्राणवियोगकारणम्[२]॥१४१॥
वड़वाग्नि, कालकूट[विष], मकर, [नक्र] और सर्पगणौंके सह वृद्धिंगत चंद्रमा मनुष्योंके प्राणनाथका कारण क्यों न होवै? (जिस समुद्रमें ये उपरोक्त दुःखदाई पदार्थ तथा जीव रहते हैं उसी से चंद्रमाकी भी उत्पत्ति है, इस हेतु उनका संग होना इसे संभवही है; बस तो जिस प्रकार उसके साथी प्राण