पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(११८)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

भंगभाग्यम्। सदृशं कथमाननं सुशोभं सुदृशो
भंगुरसंपदाऽवुजेन[]॥१३३॥

(जिसके नेत्रौं अवलोकन कर) खंजन के नेत्र नाना प्रकार (अपने को) हतभाग्य समुझते हैं (उस) सुलोचिनी के मनोहर मुख की सादृश्य, अंगशील है शोभा जिसकी ऐसे कमल से, कैसे (हो सकती है?) उपमान से उपमेय की अधिकता वर्णन करने से 'व्यतिरेक , अलंकार हुआ।

मृणालमंदानिलचंदनानामुशरशैवालकुशेशयानाम्।
वियोगदूरीकृतचेतनानां विनैव शैत्यं भवति प्रतीतिः॥१३४॥

वियोगके कारण जाती रही है चेतना जिनकी ऐसे पुरषों को मृणाल, मंदवायु, चंदन, खस, शैवाल (सिवार) और कमल शीतलता शून्य अर्थात् उष्ण प्रतीत होते हैं।

विबोधयन् करस्पर्शैः पद्मिनीं मुद्रिताननाम्।
परिपूर्णाऽनुरागेण प्रातर्जयति भास्करः॥१३५॥

प्रातःकाल मुकुलितमुखी कमलिनीको किरणस्पर्शसे जाग्रत करनेवाला अरुण भास्कर [सूर्य] जय पावै! (प्रस्तुत सूर्य वर्णन अप्रस्तुत नायक वृत्तांत में घटित होनेसे 'समासोक्ति' अलंकार हुआ। नायकपक्षमें पद्मिनीसे पद्मिनी नायिका; मुकुलितमुखीसे आलस्यमुखी किरणस्पर्शसे हस्तस्पर्श और अरुणसे अनुरागी अर्थ लेना चाहिए)


  1. 'माल्यभारा'।