पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१३४

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।


कार से (अर्द्ध) निगलेगए मेरे जान चंद्रमाके बालक रुदन कर रहे हैं।

परस्परासंगसुखानतभ्रवः पयोधरौ पीनतरौ बभूवतुः।
तयोरमृष्यन्नयमुन्नतिं परामवैमि मध्यस्तनिमानमेति॥१२१॥

परस्परके संयोग सुखसे, नम्राकुटीवाली (नायिका) के पयोधर विशेष स्थूल हुए। मेरे जान इनकी परम उन्नति को न सहन करनेसे कटिको कशता हुई (लंककी कशताका कारण कुचौंकी स्थूलताका न सहन है यह भाव। 'उत्प्रेक्षा' अलंकार

जनमोहकरं तवालि मन्ये चिकुराकारमिदं वनांधकारम्।
वदनंदुरुचामिहाप्रचारादिव तन्वंगि नितांतकांतिकांतम्[१]॥१२२॥

हे आलि! हे कृशाङ्गि! मनुष्यों को मोह उत्पन्न करने वाले और मुखरूपी चंद्रमा की कांति का प्रचार नहीं है जिसमें ऐसे इस तेरे महा मनोहर केशपाश को मैं निविड अधंकार मानता हूं ('उत्प्रेक्षा' अलंकार है)

दिवानिशं वारिणि कंठदघ्ने दिवाकराराधनमाचरंती।
वक्षोनतायै किमु पक्ष्मलाक्ष्यास्तपश्चरत्यंबुजपंक्तिरेषा॥१२३॥


  1. 'माल्यभारा'।