पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१२४

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।

यमुदेति केन पशुना लोके शशांकीकृतः॥९१॥

संग्रामके अंगनकी अग्रभूमिमें प्राणत्यागे हुए अनेक महिपालौंसे विदीर्ण किए गए मध्य भागमें छिद्र हो जानेसे प्रकट हुई है आकाश की नीलिमा जिसमें ऐसा, अपने अंगार सयान प्रदीप्त किरणों से इस भूमंडलको ग्रास करताहुआ यह मार्तंड [सूर्य] उदय हुआ है; किस पशु नें (इस) लोकमें (इसे) शशांक [चंद्र] किया? (कोई विरहणी चंद्रमासे संतप्त होकर उसे सछिद्र सूर्य मानती है; सूर्यमें कालिमा नहीं होती परंतु वह उसे भी दृढ़ करती तै कि यह कालिमा सूर्य ही की है क्योंकि रणमें प्राण त्याग करने वाले योद्धा सूर्य मंडलको भेद करके ब्रह्मलोकको जाते है, इससे उन वीरोंके प्रवेश करने से सूर्य के मध्य छिद्र हो जाने से आकाशकी नीलिमा देख पडती है; अतएव यह सिद्ध हुआ कि यह चंद्र नहीं सूर्यही है; वीरौंका सूर्यमंडल भेदना शास्त्र विहित है)

श्यामं सितं च सुदृशो न दृशोः स्वरूपं
कि तु स्फुटं गरलमेतदथामृतं च॥
नो चेत् कथं निपतनादनयोस्तदैव
मोहं मुदं च नितरां दधते युवानः॥ ९२

सुलोचनी (नायिका)के नेत्रौं का श्याम और शुभ्र स्वरूप नहीं है किंतु यह स्फुट अमृत तथा विष है; यदि ऐसा न होता तो इन का दृष्टिपात होते ही तत्काल युवापुरुष अत्यंत मोह तथा मोद [आनन्द] को क्यों प्राप्त होते? (नयनों