पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१२०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१००)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।


के) मुखमें पूर्णचंद्रबिंब की आभा, नेत्रों में कमल की सादृश्य और मंदमुसुकानि में भेदरहित यथार्थ अमृत की उत्पत्ति हुई (मदन के संचार होनेसे ऐसे व्यापार होते हैं यह प्रकटही है)

शयिता शैवलशयने सुषमाशेषा नवेन्दुलेखे
व। प्रियमागतमपि सविधे सत्कुरुते मधुर-
वीक्षर्णेरेव॥८२॥

शोभामात्र शेष है जिसकी ऐसी (प्रतिपदाकी) नूतन उदित हुई इन्दुरेखाके समान, सिवारकी सेज पै शयन करने वाली (नायिका), पार्श्वभाग में भी आएहुए प्रियतमका मधुर दृष्टिही से सत्कार करती है (अत्यंत विरहजन्यदुःख के कारण उठने बैठनेकी शक्ति जाने और प्राणमात्र शेष रहनेसे प्रियकरकी ओर केवल दृष्टिपातही कर सकी और दूसरे व्यापार नहीं; यह भाव)

अधरद्युतिरस्तपल्लवा मुखशोभा शशिकांतिलं-
घिनी। तनुरप्रतिमा च सुभ्रुवो न विधेरस्य
कृतिं विवक्षति[१]॥८३॥

अधर की द्युति से (नूतनोद्गत कोमल) पल्लवों को परास्त करनेवाली, शोभायमान मुखवाली और (सौंदर्यतामें) चंद्रमाकी कांति को उलंघन करनेवाली, मनोहरनकुटीबाली (नायिका) की अनुपम देह, इस ब्रह्मा की कर्तव्य को नहीं


  1. 'वियोगिनी' छंद है।