गुरुमध्ये हरिणाक्षी मार्तिकशकलैर्निहंतुकामंमाम्।
रदयंत्रितरसनाग्रं तरलितनयनं निवारयांचक्रे॥४९॥
मृत्तिकाके ढेले से मारनेकी इच्छा करने वाले मुझे, गुरु-जनौंके मध्यमें मृगनयनीनें जिह्वाग्रको दांतोंसे दबाय और आंखौंको तरलित करके, निवारण किया।
नयनांचलावमर्शं या न कदाचित्पुरा सेहे। आलिंगितापि जोषं तस्थौ सा गंतुकेन दयितेन॥५०॥
जिस नायिका ने पहिले नेत्रकटाक्ष को भी कभी न सहन किया वह विदेश जाने की इच्छा रखनेवाले प्रियतम से आलिंगन कीगई भी संतुष्ट स्थित रही ('प्रवस्यत पतिका' नायिका है)
मानपराग्वदनापि प्रिया शयानेव दयितकरकमले।
उद्वेल्लद्भुजमलसग्रीवाबंधं कपोलमाधत्ते॥५१॥
मानसे पराङ्मुखहुई नायिका निद्राके मिषसे प्रियतमके करकमलमें, हस्तको ऊंचा और ग्रीवाबंधको शिथिल करती हुई, कपोलको स्थापन करती है।
लोचनफुल्लांभोजद्वयलोभांदोलितैकमनाः शुभ्रे।
कस्तूरीतिलकमिषादयमलिकेऽलिस्तः वोल्लसति॥५२॥
हे शुभांगि! लोचनरूपी प्रफुलित युगुल अंभोज का लोभी चंचलचित्तवाला भ्रमर, कस्तूरीतिलक के मिष से, तेरे
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