हे चंद्रमा! मेरे प्राण लेने में तू हलाहल [विष] के समान है; (भला फिर तुझे) सुधांशु [अमृत है किरण में जिसके ऐसा] किस मूर्ख ने कहा अर्थात् नाम दिया (यह विरही की उक्ति है)
किं जल्पासि मुग्धतया हंत ममांग सुवर्णवर्णमिति।
तप्यति पतति हुताशे तदा हताशे तुलां तवारोहेत्॥४४॥
मेरे अंग का वर्ण सुवर्ण के समान है इस प्रकार मूढता से सहर्ष तू क्या कहती है? हे हताशे[१]! सुवर्ण जब अमि में (तपाने के हेतु) डाला जाता है तब तेरी तुलना [उपमा] को प्राप्त होता है। (तेरे अंगका रंग सुवर्ण से श्रेष्ठ है क्योंकि जबतक सुवर्ण अग्नि की कठोर आंचें नहीं सहता तब तक तेरी समता को नहीं पाता यह भाव। यहां सुवर्ण जो उपमान उसका नायिका का अंग जो उपमेय उससे अनादर होने से 'प्रतीप' अलंकार हुआ)
औत्सुक्यात्परिमिलतां त्रपया संकोचमंचतां च मुहुः॥
नवसंगमयोर्यूनोर्नयनानामुत्सवो जयति॥४५॥
उत्सुकता संयुक्त और वारंवार लज्जासे संकोचको प्राप्त, नूतन प्रसंग समयमें दंपत्यके नेत्रौंका उत्सव जय पावै!
- ↑ नाशहुई है आशा जिसकी।