२५-कष्टात्कष्टतरंक्षुधा शरीर मे भाँति-भांति के रोग दोष का होना; धन-रहित हो एक-एक पैसे के लिये तरसना; वन्धु-वान्धव प्रेमी जनों की जुदाई का दुःसह दुःख आदि अनेक कष्ट मनुष्य जीवन मे आ पड़ते हैं किन्तु हाय पेट की आग का बुझना इससे बढ़ कर कोई क्लेश नही है। और-और दुःख लोग बहुत कुछ रोने गाने और सन्ताप के उपरान्त किसी न किसी तरह बरदाश्त कर अन्त को चुप हो वैठ रहते हैं पर भूख का क्लेश नहीं बरदाश्त होता। जठरामि के लिये इन्धन सम्पादन का ऐसा भारी वन्धन है जिसमें जीव मात्र बँधे हुए भोर को खाट से उठते ही सांझ लौं इसी की चिन्ता मे व्यग्र इतस्ततः धावमान् किसी न किसी तरह अपना पेट पालते ही तो हैं। अस्तु, और-और समय तुरन्त पूरा इस उदर दरी का पाटना इतना कर्रा चाहे न भी रहा हो जैसा अब हो रहा है; किन्तु अनेक बार की गाई हुई गीत का फिर-फिर गाना व्यर्थ और नितान्त अरोचक होगा। योगी जन यन और अभ्यास से उन-उन इन्द्रियों को जिन्हें काबू में लाना अतीव दुर्घट है अन्त को अपने आधीन करी तो लेते हैं पर इस जठरामि के ऊपर उनका कुछ वश नहीं चलता। वे-वश उन्हें भी इसके लिये चिन्ता करनी ही पड़ती है। शृगारोत्तरसत्पमेयरचना चातुरी के एकमात्र परमचार्य कविवर गोवर्द्धन अपनी 'गोवर्द्धन सप्तशती में ऐसा लिख भी गये हैं- "एकः स एव जीवति हृदयविहीनोपि सहृदयो राहुः । यासनधिमकारणमुदरं न विभर्ति दुश्पूरम् ॥ जीवन एक राहु का सफल है, जो केवल शिरोभाग होने से हृदय शून्य होकर भी सहृदय चतुर या सरस हृदय वाला है इसलिए कि
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/९८
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