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मानना और मनाना


है, सबल निर्बल को बचाता है, गुरु शिष्य को पढ़ाता है ऊॅच नीच का मान रखता है, इत्यादि। स्वार्थ-वश प्रेम तथा द्रोह सभी करते हैं पर निस्वार्थ-प्रेम का भाव केवल मानने ही के कारण से है। इस तरह पर इस मानने मनाने के भाव को जितना चाहिये पल्लवित कर सकते हैं हमने केवल दिक् प्रदर्शन मात्र किया है।

अगस्त; १८९६
 



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