मानना और मनाना 1 H कुछ अज्ञता और मूर्खता पर निर्भर रहता है इसलिए हाल के ज़माने के चालाक ब्राह्मणों ने पहले प्रजा को पढ़ने से रोका, वेद उनसे छिपाया' और देश भर को मूर्ख कर डाला तब जैसा चाहा वैसा उनके मन में विश्वास जमा दिया । ईश्वरीय नियम है, जो दूसरे की बुराई चाहेगा' उसकी पहले बुराई होगी; प्रजा को मूर्ख और अज्ञ कर देने की चेष्टा करते करते आप स्वयं मूर्ख हो गये । अब इस समय जब कि अगरेज़ी तालीम ने विश्वास की जड़ हिला डाला है' लोग पढ़ पढ कर सचेत हो जाते हैं और इनके चंगुल से निकलते जाते हैं पर ये वही मोची के मोची रहा चाहते हैं । कितना ही कहो हजार हजार फिकिर करो ये उस अज्ञता के कीचड़ के बाहर न होंगे, दक्षिणा के लोभ से उसी मे सौंदे पड़े रहेंगे। मनवाना केवल अज्ञ ही के लिए सहज नहीं है किंच बहुज्ञ को भी मनवाय देना सहज है किन्तु वे जो अधकचड़े हैं जिन्हे ज्ञान, लव, दुर्विदग्ध की पदवी दी गई है उनके जी मे विश्वास दिलाना महा दुष्कर है । इसी मूल पर भर्तृहर के ये कई एक श्लोक हैं- अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तनरं न रंजयति ॥ लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् । पिवेच्चमृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः॥ कदाचिदपिपर्यटन शशबिषाणमासादयेनतु । प्रतिनिविष्ठमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ इत्यादि । इसी से यह भी कहा गया है कि या तो वे सुखी हैं जो सर्वथा अज्ञ हैं या वे जो सब भाँति पारंगत हैं पर वे जो न तो मूर्ख हैं न सर्वज्ञ हैं - अधकचड़े हैं, क्लश उठाते हैं यश्चमूढतमो लोके यश्चवुद्ध परंगतः । द्वाविमौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः । i
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/९१
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