२२-मानना और मनाना सुख दुःख का हम अभी वर्णन कर चुके हैं कि सुख क्या है और क्यों होता है ऐसा ही उसके जो विरुद्ध वह दुःख है। किन्तु इन दोनों सुख और दुःख का अकुर बीजरूप हो मनुष्यमात्र के चित्त रूपी थावले मे बोया जाता है और यह बीज अँकुराने पर मानना और मनाना इस नाम से प्रचलित होता है। सुख, दुःख क्या वरन् संसार के यावत् कारखाने सब इसी मानने मनाने पर हैं । प्रबल-इन्द्रिय-जन्य-जान से प्रेरित हो हम हरएक बातों को अपने अनुकूल या प्रतिकूल वैसा मान लेते हैं, वास्तव मे वे सब मान लेने की बाते हैं; असलियत उनकी कुछ नहीं है । मानने मे भी कितनी बातो को हम मनाये जाते हैं लाचार हो उन्हें उस तरह पर मानना पड़ता है। जैसा अपने स्वामी की आशा हाकिम का हुक्म जीविका पाने की इच्छा से या सजा पाने को डर से मानना पड़ता है। कितनी बातो को कर्तव्य, कर्म, फर्ज-ड्यूटी-बान्ड या धर्म समझ हमे मानना पड़ता है। जैसा स्त्री को अपने पति की, शिष्य को गुरु की, पुत्र को माता पिता की आज्ञा मानना कर्तव्य कर्म में दाखिल है, इसलिये मानना ही पड़ता है । कभी कभी हमारे मानने में भूल रहती है उसे भ्रम या भ्रान्ति कहते हैं, जैसा रसरी में सर्प की भ्रान्ति, शुक्ति में रजत की, मृगतृष्णा मे जल की इत्यादि । विश्वास भी इसी मानने का दूसरा नाम है। कितने ऐसे सरल और सीध जी के होते हैं कि उनके मन में दूसरे का कहना जरद आ जाता है और उस पर विश्वास जम जाता है। हमारे देश में बालण इन विश्वास ही का बड़ा फायदा उठा रहे हैं । यहाँ की प्रजा को सीधी और अकुटिल समझ नरक और परलोक का अनेक भय दिखाय जैसा चाहा वैसा उनसे मनवाया। विश्वास बहुत
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