पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/८६

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२१-महत्व हमारे देश की वर्तमान् बिगड़ी दशा के अनुसार खास कर इस अंगरेज़ी राज्य मे महत्व केवल धन मे श्रा टिका है पर बुद्धिमानो ने जैसा तय कर रक्खा है उससे सिद्ध होता है कि धन महत्व-संपादन का प्रधान अंग नहीं है वरन् उसका एक बहुत छोटा सा जुज़ है। कुल "खान दान" अलबत्ता बड़ा भारी अंग है इसलिये कि कुलीनों मे महान् बहुत अधिक होते आये हैं और हो भी सकते हैं। कुल मानो महत्व के इत्र बनाने की एक ज़मीन है जिस पर जैसा चाहो वैसा इत्र खींच ले सकते हो। जिस तरह का महत्व चाहते हैं वैसा इस कुलीनता की भूमिका पर संपादित हो सकता है। दूसरा अंग चरित्र है चरित्र पालन मे जो साव- धान हैं वे काल पाय महान क्या बल्कि महत्तर हो सकते हैं। तीसरा अग औदार्य है अनेक दोष-दूषित भी दान-शील देने वाला उदार चित्त हो तो उसके दोषों की उपेक्षा कर सबी उसके अनुयायी और प्रशंसा करने वाले होंगे। कि दातुरखिलैोपैः किलुब्धस्याखिलैगुणैः । न लोभादधिको दोषो न दानादधिको गुणः ॥ देने वाले में एक दातृत्व गुण के सिवाय सब दोप ही दोप होउन दोषों से क्या और लोभी कदर्य सम में सन गुण ही गुण हों तो कदर्यता ऐसा भारी दोप है कि उसके गुणों की किसो को कदर नहीं होती तो निश्चय हुधा कि लोभ से अधिक कोई दूसरा दोष नहीं और देने से अधिक कोई गुण नहीं। और भी- "वोपा अपि गुणायन्ते दातारं समुपाश्रिताः काजिमान स्लिालम्ब्य कालमेघ इतिस्तुतिः"