८६ भट्ट निबन्धावली यह लोक या परलोक सम्बन्धी जो कुछ काम करेगा उसमे पूरी तरह कृत कार्य होगा। स्थिर अध्यवसाय के साथ मनोनियोग के अभ्यासी के आगे विघ्न हवा में धूलि के समान दूर उड़ा करते हैं। क्योकि उसको तो अंगीकार्य के अन्त तक पहुँचने की बॅधी है । "विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धं उत्तम जनान परित्यजन्ति" जो मनुष्य में महत्व की बड़ी भारी पहचान निश्चय की गई है। योगियों में योग और क्या हो सकता है यही स्थिर अध्यवसाय । हमारे पूर्वज ऋषिगण अपने स्थिर अध्यवसाय मे दृढ रह न जानिये कितनी लोकोत्तर अद्भुत बाते कर गुजरे। आधुनिक शिक्षित मंडली मे विश्वा- मित्र ऐसे तपस्वियों के काम यदि निरी कल्पना और किस्सा माने जाय तो भी यह स्थिर अध्यवसाय और दृढ निश्चय का पूरा उदाहरण तो अवश्य कहा जायगा। आदमी में हटता होनी चाहिये तब वह क्या नही कर सकता ? साथ ही इसके इतना अवश्य ध्यान रहे कि जिस बात के लिए वह उद्यत हुआ है वह अनुचित या गलत नहीं है। हम गलती में न पड़े हो और अपने इरादे के मज़बूत और पक्के हों तो कभी मुमकिन नहीं कि कामयाबी न हासिल कर सके। हमारे पढ़ने वाले "स्माइल्स श्रान क्यारेक्टर", "क्रेक्स परसुट्स श्राफ नालेज" मे इसके अनेक उदाहरण पा सकते हैं। इतिहासों में मुगल बादशाह वावर ऐसे अनेक विजयी लोगों के उदाहरण पाये जाते हैं जिन्हें पढ कैसा ही दुर्वल चित्त और कम हिम्मती हो सावित कदमी और दृढ़ता प्राप्त कर सकता है । एक बड़ा उत्तम उदाहरण स्थिर निश्चय का महाकवि भारवि ने किरातार्जुनीय के ग्यारहवे सर्ग में दिया है । तपस्या से महादेव को प्रसन्न कर शस्त्र-विद्या प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले अर्जुन की परख करने को मुनि का भेष घरे श्राये हुये इन्द्र के प्रति अर्जुन ने कहा है- "विच्छिता विलापमित्रविलीप नगमृद्ध नि । श्राराध्य वा सहस्रामयशः शल्यमुद्धरे।"
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