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भट्ट निवन्धावली श्राशाया: खलुयेदासास्ते दासा जगतामपि । आशादासी कृतं येन तेन दासी कृतं जगत् ॥ अशीमहि वयं भिक्षां श्राशा वासो वसीमहि । शयीमहि महीपृष्ठे कुर्बीमहि किमीश्वरैः । सुकरात, अफलातू, अरस्तू, तथा अक्षपाद, कणाद, गौतम सरीखे दार्शनिक बुद्धिमानों के पास जो रत्न था और जिस सुख के घनानन्द का अनुभव उन्हें था वह उसे कहाँ जो धन संपत्ति तथा सासारिक विषय-वासना की ज़हरीली चिन्ता से अहर्निश पूर्ण रहता है। जुलाई १९६६