मन और नेत्र ७३ चेष्टा बोल-चाल और इशारे से मनुष्य का अन्तर्गत मन जान लेते हैं और मन मानिक की कदर जानने वाले और परखने वाले जौहरी भी ऐसे ही लोग हैं । मन के पवित्र या अपवित्र करने का कार नेत्र है । किसी पुण्याश्रम तपो-भूमि, गिरि, नदी, निझर आदि तीर्थ-विशेष मे जाकर वहाँ के प्राकृतिक पवित्र दृश्यो को देखते ही या किसी जीवन्मुक्त महापुरुष के दर्शन से मन एक बारगी बदल जाता है। बड़े-बड़े महा- पापी ठग और डकैतों का हाल देखा और सुना गया है कि ऐसे लोग पवित्र स्थान में जाते ही या किसी पुण्यशील महात्मा से मिल कर सदा के लिये अपने उस पाप कर्म से अलग हो गये, महाशान्ति भाव धारण कर ऋषि तुल्य बन गये हैं। लोग मन को नाहक चञ्चल-चञ्चल कह कर प्रसिद्ध किये हैं चाञ्चल्य नेत्रो का रहता है, बझता है निर- पराधी मन वेचारा। क्यों बसिये क्यों निबाहिये नोति नेह पुर माहि । लगा-लगी लोयन करें नाहक मन बधि जाहि ।। हग उरमत, टूटत कुटुंब, जुरन चतुर चित प्रीति । परति मंठ दुरजन हिये, दई, नई यह रीति ॥ नयना नेक न मानहीं कित्तौ को समुझाय । तन मन हारे हूँ हसै तासों कहा बसाय ॥ सच मानिये, मन महा अमीर को बहका कर आशिकी के पन्थ मे ले जाने वाले ये लोचन कुटने दूत हैं जो इसे इश्क के जाल मे फंसा कर फिर किसी काम का नही रखते । किसी शायर ने कहा है। दीदार दिलरुबा का दीवार कह कहा है। जो उस तरफ को मॉका वह इस तरफ कहाँ है ॥ फिर जब प्रेमी के वियोग मे ये निरास हो बैठते हैं उस समय मन से अपने सहयोगी नेत्रों की तरस नही सही जाती, विकल हो सब ओर से दिन रात एक उसी की खोज में प्रवृत्त हो जाता है। खान पान तक भ. नि०-५
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