पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/७१

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१६-मन और नेत्र हमारे यहाँ के दार्शनिक मन को सब इन्द्रियो का प्रभु मानते हैं। उनका सिद्धान्त है हाथ पाँव इत्यादि इन्द्रियो का किया कुछ नही होता यदि मन उस ओर रुजू न हो । "मनः कृतं कृतं लोके न शरीर कृतं कृतं" मनका सरोकार यद्यपि समस्त इन्द्रियो के साथ है पर नेत्र के साथ तो उसका सबसे अधिक घनिष्ट सम्बन्ध है । किसी बुद्धिमान् का सिद्धान्त है कि अकिलमन्दों का मन आँख में रहता है। दार्शिनिक यह शब्द ही हश धातु से बना है अर्थात् वह मनुष्य जो किसी वस्तु को देख उस पर अपनी मानसिक शक्ति को ज़ोर दे । हम सब लोग दिन रात हर एक वस्तु ससार की देखा ही करते है पर उन देखी हुई चीज़ों पर मन को कभी ज़ोर नही देते। वहो बुद्धिमान् जन है "कहना चाहिये देखना जिन को ही आता है। उनके नेत्र उस देखे हुए पदार्थ के नस- नस मे प्रवेश कर उस पर मन को काम मे लाय सोचते-सोचते उसके तत्व तक पहुंच जाते हैं । लटकती हुई चीज़ो को मामूली तौर पर झूलते हुये सब लोग रोज़ देखा करते । लटकते हुये लैम्प को इस प्रकार हवा में झोका खाते देख गेलिलियो के मन में यह एक अनोखी बात बोध हुई और इस बात को देर तक सोचने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि इस तरकीब से हम समय अच्छी तरह पर नाप सकते हैं और यहां घड़ी के पेड्डुलम की ईजाद का मूल कारण हुआ। अत्यन्त तुद्र से क्षुद्र पदार्थ का देखना ही है जिस पर मन एकाग्र हो बड़े-बड़े विज्ञान, विद्या, और कलाश्रो के प्रचार पाने का हेतु हुआ है। नितान्त अज्ञ दूध मुहें बालक को जब कि उसकी मानसिक शक्ति अत्यन्त अल्प