७२ भट्ट निबन्धावली रहती है उस समय नेत्र ही ज्ञान द्वार हाता है और यही कारण है कि बालक हर एक साधारण सी साधारण वस्तु को भी बड़े चाव और अचरज के साथ ग्रहण करता है तात्पर्य यह कि बालक को ( मेटल डेवलपमेंट ) मानसिक शक्तियों का प्रकाश जैसा नेत्र के द्वारा देखने से होता है उतना सुनने आदि से नहीं। किसी चटकीली चमत्कारी वस्तु को सुन जो मन मे उत्सुकता या व्यग्रता पैदा होती है वह नेत्र ही के द्वारा शान्त होती है। कभी को देखने से मन और अधिक उत्सुक होता जाता है जैसा प्रेमी को अपने प्रेम पात्र के देखने मे सच्चे भक्त को अपने इष्ट देव के दर्शन में एक बार दो बार दस बार सहस बार जितना हो देखते जाइयं देखने की अभिलाषा अधिक-अधिक हाती रहेगी जैसा आग में घी छोड़ने से भाग और धधकती है। मनुष्य के तन मे एक अखि ही सार पदार्थ है और मन का ता इसके साथ ऐसा धना सम्बन्ध है कि मन को लोगों ने हिये की बांग्त्र ही मान रक्खा है। सूर ने अपने एक बिनय मे कहा भी है- "सूर कहा कह द्विविध धरों बिना माल को चेरो।" ईश्वर न करे किसी की हिये की फूट, हिये की फूटने से फिर किसी तरह पर निस्तार नहीं है। हमारे देश वालो के हिये की फूटी है हम लोग सौ बार सहन बार कहते-कहते थक गये इन्हें चनाने और हिये को खोलने के लिये भरसक यत्न करने में त्रुटि नहीं करते पर इनके चित्त में उसका अणुमात्र भी असर नहीं होता। हमाग मन यदि किसी एक वस्तु में एकाग्रता के साथ लगा ऐसे समय हम हज़ारों चीज़ों को देख कर भी उनका कुछ स्मरण नहीं रखते । इसने सिद्ध हुआ कि हृदय की श्रास हमारे चर्मवन से कितना अधिक प्रबल है: तस्मात् हिये की आँख से जो देखना है और इस तरह का देखना जिन्हें मालूम है वेही ठीक ठीक देबना जानते हैं। चतुर सयाने जिन्हें इस तरह के देखने का हुनर याद है बाहरी श्राकार -
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