७० भट्ट निवन्धावली "क्यों वसिए निरवारिए नीति नेहं पुर नाहि । लगा लगी लोचन करें नाहक चित बँधि जाहिं ॥ नैना नेक न मानहीं कितेउ कहो समझाय । तन मन हारे हू हसैं तिनसों कहा बसाय ॥ इंग उरमत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति । परत गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीति ॥" किसी शायर का कौल है :- "दीदार दिलरुबा का दीवार कहकहा है। जो उस तरफ को झोंका वह इस तरफ कहाँ है ॥" प्रेमी के वियोग मे जब ये नेत्र निरास हो बैठते हैं तब अपने सहयोगी मन को उस ओर भेजते है, जो दिनरात उसकी खोज में प्रवृत्त हो जाता है। दैवयोग से प्रेमी मिल गया तो नेत्रो को ठढक पहुँचती है; नहीं तो सन्ताप मे झुलसा "प्रेम बनिन कीन्हो हुतो नेह नफा जिय जानि । अब प्यारे जिय की परी प्राण पुंजी में हानि ॥" अन्त में अपनी दशा का देखना यावत् सुधार और मन के शान्ति का हेतु है। जो अपनी दशा देख कर काम करते हैं वे सदा सुग्वी रहते और सङ्कट मे नहीं पड़ते हैं। दिसम्बर. १९०६ करते है।
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/६८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।