१५-चित्त और चक्षु का घनिष्ट सम्बंध चित्त जिसके द्वारा चैतन्यमात्र को वाह्य वस्तु का ज्ञान होता है उसका चनु के साथ जैसा घनिष्ट सम्बन्ध है वैसा दूसरी ज्ञानेन्द्रियो के साथ नहीं। दार्शनिक, जो 'दृश्' धातु से बना है, दृष्टि और मन दोनो के सम्बन्ध का मानो निचोड़ है, अर्थात् वह मनुष्य जो किसी वस्तु को देख उस पर अपनी मानसिक शक्ति का ज़ोर दे। इसी से किसी बहुदर्शी विद्वान का सिद्धान्त है कि बुद्धिमान् का चित्त चक्षु है। हम लोग प्रतिक्षण संसार के सब पदार्थों को देखा करते हैं, पर उन देखी हुई वस्तुत्रो पर मन को जैसा चाहिए वैसा नहीं लगाते। एक तत्त्व-दर्शी विद्वान का देखना यही है कि उसके नेत्र उस देखे हुए पदार्थ की नस-नस में पैठ मन को काम में लाकर सोचते-सोचते उसके तत्व तक पहुंच जाते हैं । लटकती हुई चीज़ों को इधर-उधर झूलते सब लोग देखते हैं, पर लटकते लैम्प को हवा में झोंका खाते देख गेली- लियो के मन में एक अनोखी बात आयी। उन्होंने देर तक सोचने के उपरान्त निश्चय किया कि इस तरकीब से हम समय को अच्छी तरह नाप सकते हैं और वहीं घड़ी के पेडुलम की ईजाद का मूल कारण हुअा। तुद्र पदाथो को देग्य मन का उन पर एकाग्र होना बड़े से बड़े विज्ञान और अनेक कलायो के प्रचार का हेतु हुआ। न्यूटन ने भी तो सेव के फल को नीचे गिरते देखा ही था, कि जिस पर चित्त को एकाग्र कर सोचते-सोचते आकर्षण शक्ति का सिद्धान्त दृढ किया, जिस शक्ति के बल से ब्रहाण्ड, मूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी, तारागण, ग्रह, नक्षत्र सब अपनी-अपनी कक्षा में नियत समय मे धूमा करते हैं। नितान्त अश दुधमुंहे बालक को जिसकी मानसिक शक्ति अत्यन्त अल्प रहती है उस समय नेत्र ही ज्ञान का द्वार रहता है। .
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