&5 भट्ट निबन्धावली यही कारण है कि बालक साधारण से साधारण वस्तु को बड़े चाव से देखता है। तात्पर्य यह है कि बालक की मानसिक शक्तियों का विकास 'मेटल डेवेलपमेंट जैसा-नेत्र के द्वारा होता है वैसा कान आदि के द्वारा नही। किसी चटकीली चमत्कृत बात को सुन कर जो मन में उत्सुकता पैदा होती है वह नेत्र ही के द्वारा शान्त होती है । सुनने और देखने के भाव को किसी ने नीचे के श्लोक में बड़ी चातुरी के साथ प्रगट किया है :- श्रुत्वापि दूरे भवदीय वाती नेत्रौ च तृप्तौ नहि चक्षुषीमे । तयोर्विवाद परिहतुकामः समागतोहं तव दर्शनाय ॥ अर्थात् आपके उत्तम गुणों की चर्चा सुन कर कान तो तृप्त हो गये पर आँखे नही । जब आपकी बात चल पड़े तब कान जिन्होंने सुन रखा था, प्रशसा करने लगे और आँखै जिन्होंने देख नही रक्खा था लड़ा करे। उन दोनो का झगड़ा मिटाने को हम आपके दर्शन का आये है। नल के गुण-स्तुति का नैषध काव्य में भी ऐसा ही एक श्लोक है। अदस्तकार्य फलाट्यजीवितं दशो योर्नस्तदवीच्य चाफलम् । इतिस्मचक्षुश्शवसां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हृदा तदात्मनः ॥ सर्प चतुश्रुवा होते हैं, अर्थात् आँख ही से देखते और सुनते भी है । नाग पत्नियां नल का यश सुन कर प्रसन्न होती हैं और अपना जन्म सफल मानती है; पर देखा नहीं इससे अपने को विफल जन्मा मान अपनी निन्दा भी करती हैं। आग में घी छोड़ने की भाँति कभी-कभी देखने से मन और अधिक उत्सुक होता जाता है। जैसे प्रेमी को अपने प्रेम-पात्र के देखने में, सच्चे भक्त को अपने इष्टदेव के दर्शन में, एक बार, टी बार, बार, सहस बार जितना ही देखता जावे उतनी ही चाह यदती मायगी। फिर मन का तो अग्यि से ऐसा धना सम्बन्ध है कि मन वार,
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