१३-संसार सुख का सार है. हम इसे दुःख का आगार कर रहे हैं ससार सुखका सार और स्वार्थ तथा परमार्थ साधन का पवित्र मन्दिर है पर हम इसे अपने कुलक्षणों से दुःख के प्रवाह का श्रोत यावत् सन्ताप और क्लेश का अपवित्र आलय कर रहे है । पौरुषेय गुण शून्य हम अपने अकर्मण्य वेदान्तियो को क्या कहैं जो ससार को दुःख-रूप मिथ्या और नश्वर मानते हैं, यह प्रत्यक्ष है कि यह हमारे ही अविचार अविवेक अशान्ति असन्तोष मोहान्ध बुद्वि आदि दुर्गुणों का कारण है कि स्वर्ण मन्दिर ससार को हम ढहाय के उजाड़ खडहर कर रहे है । जहाँ अमृत का कुण्ड भरा है उसे हम हालाहल विप से भरे देते है । बड़े विद्वान हुये यावज्जीव शास्त्र और फिलॉसोफी को रट रट पचमरे, जितना रट डाला उसके एक वाक्य पर भी जो विवेक और विचार को काम में लाते तो अपने अस्तव्यस्त कामो से जो अनेक दुःख सहते है और अपनी समझ और काम को दोष न दै ससार को दुःख का आगार मान बैठे हैं यह भ्रम मिटजाता। यदि विवेक और विचार को मन में जगह देते तो जो दुःखमय बोध होता है वही अनन्त सुख का हेतु होता, "हाथ कंगन को श्रारसी क्या?" जिस काम को हम विचार और विवेक पूर्वक करते हैं उसमें पूरे कृतकार्य होते हैं और दैवात् कभी न भी कृतकार्य हुये तो पीछे से पछताव नही रह जाता। यही बात असन्तोष मे पाई जाती है हज़ार कमाया लाख कमाया सन्ताप नहीं होता रात दिन चिन्ता में व्यग्र रहते है रात को नींद नहीं आती, दिन मे खान पान नही
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/५५
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