( ५ )
लड़ी सी गुथी रहने के कारण उसमे एक प्रकार का सम्मेलन उत्पन्न
हो जाता और भाषा में रोचकता, कान्ति, ओज और आकर्षण आ
जाता था।
भट्ट जी की "हिन्दी उनकी अपनी हिन्दी थी" और उस पर उनकी छाप लगी रहती थी। उनकी भाषा की व्यङ्गमयी छटा उन्हीं की अपनी प्रवृत्ति और सम्पत्ति थी। उनके निबन्ध भी हमेशा नए से नए उन्हीं के विचारों की उपज रहा करते थे। उनके प्रत्येक निबन्धों मे गम्भीर अध्ययन, अनुभव, और पाण्डित्य का परिचय पग पग पर मिलता था। परन्तु जैसा पहले कहा जा चुका है उनकी विद्वत्ता कभी भाषा की सुबोधता या सरलता मे बाधक नहीं हो पाती थी। वह हमेशा ऐसी भाषा में लिखते थे जिससे पढ़ने वालों की रुचि उसकी ओर बढ़े और उसमे व्यक्त किए हुए भाव उसके हृदय मे तत्काल ही प्रवेश कर अकित हो जावे। इसीलिये उनकी सभी प्रकार की रचनाओं मे मनोरंजकता का पूर्ण समावेश रहता था और उनके गम्भीर से गम्भीर विषयो पर लिखे गए निबन्ध भी हास्य से रिक्त नहीं होते थे।
हिन्दी मे भट्ट जी ने ही भावात्मक निबन्धों का सृजन किया और
उसका विस्तार और प्रचार भी किया। इसी प्रकार विचारात्मक निबन्धों
का प्रणयन भी इन्होंने ही किया है। इस प्रकार के इनके निबन्धों मे
विचारों की सुश्रृंखल योजना, उनका क्रम-बद्ध उद्घाटन और यथातथ्य
विवेचन का पूरा समावेश रहता था। पद्यात्मक प्रणाली में गद्य
लिखना आज कल साधारण बात हो गई है। भट्ट जी ने उस समय
इस प्रकार के पद्यात्मक गद्यों की भी प्रभाव पूर्ण रचना की थी।
आधुनिक अंग्रेजी पढ़े हुए लेखकों के लेखों मे जो कोष्ठबन्दी होती है
उसका आविर्भाव भी हिन्दी मे पहले पहल इन्होंने ही किया था। इन्हीं
सब गुणों से साहित्यिकों ने इन्हें "आविष्कारक गद्यलेखक" कहा है
और इनकी तुलना अंग्रेजी साहित्य के "एडीसन" और "स्टील" से
की है। बहुत से विद्वानों ने इनके निबंधों का मुकाबला अंग्रेजी के