भक्ति ४६ पुराने प्राचार्यों ने नवधा भक्ति नाम रक्खा- जिसका प्रादुर्भाव या जिसकी फिलासोफी केवल हिन्दुस्तान ही में दर्शन के आकार में परिणत हुई । और शाडिल्य के उपरान्त फिर महाप्रभु वल्लभाचार्य ही को सूझी । गाडिल्य ने जो कुछ निरे ख्याल ( थ्योरी) मे रक्खा उसको बल्लभाचार्य ने प्रैक्टिकल करके दिखला दिया, कर्म योग कैसा होना चाहिये उसका रूप बड़ा कर दिया और उसके आधार बाल भाव में भगवान् कृष्णचन्द्र को बनाया। अकुटिल भाव, सरल चित्त, जी की सिधाई. की परीक्षा का निक. शापल कसोटी जैमा यह भक्ति है वैसी कोई वस्तु ससार में नहीं है। हम नरह के हमारे सच्चे भक्तो पर मूर्खता का दोष आरोपित किया जाता है खास कर इस समय जब शिक्षा का प्रवाह हमारे देश में वह निकला है, पटे लिम्बे लोग ऐसों को हसते है उन्हें दिल्लगी में उडाते है पर अकुटिल चित्त हमारे भक्त जन उनकी ठठोली का कुछ भी ख्याल न कर प्रेम और अनुराग में इवे हुये ससार के यावत् वाद्य प्रपच को लात मारते हैं। मरदास की काली कमली न दूजा रग -देश या जाति का नवाभ्युत्थान या अधःपतन सायेन्स की नई नई इजादी से अनेक तरक्कियाँ होती रहैं उनको इसमें छ स्गेकार नहीं । हिन्दुस्तान क्यो हीन दीन हो ड्रवता जाता है मका भी उन्, कोई शोक सन्ताप नहीं । विदेशियों के बताये मार्ग पर चलने से हमारी तरक्की है कौमीयत का दावा वाँधने में हम भी प्रग्रसर ही सपंगे इसका कुछ हर्य नहीं। अपने सेव्य प्रभु की अविच्छिन्न मेवा में अन्तर न हो या नत्सामीप्य रियोग जनित क्लेश न हो यही उन्का मुख्य उद्देश्य है । जैसा कुभन दास का दिन भर का वियोग कई वर्ष हो गये थे जो अष्टछाप के वैष्णवों के इन पद से प्रगट है 'वितिय दिन होइ जो गये विनु देखे - तरुण किशार श्याम नन्द नन्दन क्हुक श्रवत मुह रेते इत्यादि । हरि भक्ति, देव भक्ति, गुरु भक्ति, पितृ भक्ति. नानु भजि. नज . 4
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