मनुष्य के जीवन की सार्थकतो. वादी जीवन की सफलता इसी मे मानते हैं कि हम यह बोध हो जाय कि मी ब्रह्म हैं और इस जगत् के सब काम आपसे आप होते जाते हैं कोई इसका प्रेरक नही है। पाप और पुण्य भला और बुरा दोनो एक से हैं- चित्त मे ऐसा पूरा पूरा भास हो जाय तो बस हम जीवन मुक्त हो गये अब हमे कुछ करना धरना न रहा सब ओर से अकर्मण्य हो बैठे। और आगे बढा तो मन को नाश कर डालो क्योंकि सब उत्साह और आगे को तरक्की करने का मूल कारण मन सो न रहेगा तो बुराई का काम चाहे न भी रुकै पर भलाई तो तुम से कभी हो हीगी नही और यह सब भी नभी तक जब तक अपनी जरा भी किसी तरह की हानि नहीं है बस केवल जबानी जमाखर्च मात्र रहे आत्म त्याग के उसूल सो कही छू भी न जाँय कसौटी के समय चट्ट फिसल कर चारो खाने चित्त गिर पड़ा करो-ऐसा ही सेवक भक्त अपने प्रभु की सेवा में लीन होना ही जीवन की सफलता मानता है। स्मरण कीर्तन, वन्दन, पाद सेवन, सख्य, आत्मनिवेदन आदि नवधा भक्ति के द्वारा जो अपने सेव्य प्रभु में लीन हो गया वास्तव मे उसका जीवन सफल है। इस उत्तम कोटि के महात्मा अब इस समय बहुत कम जन्मते है अहं ब्रह्मास्मि कहने वाले धूर्त बचकों से तो यही भले । यद्यपि जिस बात की पुकार हमे है सो तो इस दासोस्मि में भी नहीं पाई जाती फिर भी प्रेम और दृश्य जगत् सर्वथा निस्तार नहीं है न सर्व नाशकारी अकर्मण्यता ही का दखल इनमे है इससे ये बहुत अंशो मे सर्वथा सराहनीय है । चतुर सयाने चलते पुरजे चालाक कहीं पर हों अपनी चलाकी से न चूकने ही को जन्म का साफल्य मानते हैं। किसी कवि ने ऐसों ही का चित्र नीचे के श्लोक में बहुत अच्छा उतारा है - श्रादौ भागः पंच धाटस्य देयाः द्वौ विद्यायाः द्वौ मृषाभषाणस्य । एक भागं भरिडमाया, प्रदेय पृथ्वी वश्यामेषयोगः करोति ।। पहला ५ हिस्सा वृष्टता का हो तब दो विद्या का दो झूठ बोलने का और एक हिस्सा भडौत्रा का भी होना ही चाहिये जिनमे ये सब
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/३९
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