मनुष्य के जीवन की सार्थकता जीवन की इयत्ता या अोर छोर है तात्पर्य यह कि जिसने स्वाथ साधन को भरपूर समझा वही यहाँ सफल जन्मा है। बिलाइत में जब तक अपने देश या जाति के लिये कोई ऐसी बात न कर गुजरा जिसमे सर्व साधारण का कुछ उपकार है तब तक जीवन की सफलता नही कही जा सकती क्योंकि इतना तो जानवर भी कर लेते है-अपने बच्चों को पालना पोषना वे भी भरपूर जानते हैं, जो उनके शत्रु हैं उनसे लड़ना जो उसके साथ भलाई करते है उन्हे उपकार पहुंचाने का ज्ञान उन्हे भी रहता है बरन कुत्ते और घोड़े आदि कई एक पशुओ मे कृतजता और स्वामि-भक्ति मनुष्यों से भी अधिक पाई जाती है तब मनुष्य और जानवर मे क्या अन्तर रहा। इससे निश्चय होता है कि जन्म की सफलता का ज्ञान केवल समाज पर निर्भर है जिस काम को या जिस बात को समाज के लोग पसन्द करते हो और भला समझते हो उस ओर हमारी प्रवृत्ति का होना ही जीवन की सफलता है। जैसा इस गुलामी की हालत मे पढ-लिख सौ पचास की नौकरी पाय अपनी ज़िन्दगी दूसरे के आधीन कर देना ही जन्म की सफलता है सच है-- सेवाविक्रीतकायानां स्येच्छाविहरणं कुतः" जिन्होने दूसरे की सेवा में अपने को दूसरे के हाथ वेच डाला है उनका फिर आज़ादगी कहा ? सैकड़ो वर्ष से गुलामी मे रहते पुश्तहा-पुश्त बीत गये स्वच्छन्दता या आज़ादगी की कदर हमारे मन से उठी गई। इस हीरे की परख के जौहरी इगलैड तथा यूरोप और अमेरिका के देशों मे पैदा होने लगे या अब इस समय जापान को इसकी कदर का ज्ञान होने लगा है हमारे यहा तो न जानिये वह कौन सा जमाना था जब मनु महाराज लिख गये कि "सर्व परवा दुःख सर्वमात्मवश सुखम्" सब कुछ जो अपने वश का है सुख है जो दूसरे के आधीन हैं वही दुःख है सुख दुःख का सर्वोत्तम लक्षण यही निश्चय किया गया है । सो
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