भारतेन्दु-युग आधुनिक हिन्दी का बाल्य-काल था। इस काल मे अम्बिकादत्त व्यास, बदरीनारायण 'प्रेमघन', राधाकृष्णदास, राधाचरण गोस्वामी, तोताराम, काशीनाथ खत्री, कार्तिक प्रसाद खत्री, श्री निवास- दास आदि अनेक गद्य लेखक पाए जाते हैं, पर यदि इनमे निबन्ध- लेखकों को चुना जाय तो केवल दो ही व्यक्ति दृष्टिगोचर होते हैं -- बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र। इनमे प० बालकृष्ण भट्ट का कार्य पं० प्रताप नारायण मिश्र से कहीं अधिक महत्व का है क्योंकि वे हिन्दी-गद्य को अत्यधिक शुद्ध तथा परिमर्जित करके उसे साहित्य के उपयुक्त बनाने मे सर्वथा सफल हुए। पं० प्रताप नारायण मिश्र के द्वारा हिन्दी-गद्य में जो कुछ शिथिलता आ गई थी उसका प्रतिकार भट्ट जी ने किया। मिश्र जी की भाषा मे विशेष कर व्यंग्य और हास्य लिखने में ग्रामीणता की झलक आ जाया करती थी, उसी भाषा ने प० बालकृष्ण भट्ट के द्वारा सुन्दर, समीचीन, साहित्यिक रूप धारण किया। पं० प्रताप नारायण मिश्र ने हिन्दी-गद्य का जो उपवन लगाया था भट्ट जी ने चतुर माली की भाँति उसके विटपों की अनावश्यक सघनता की काट-छाँट की और नए-नए सुन्दर पौधों को अकुरित, पल्लवित और पुष्पित करके उसमे सरस साहित्यिक सौरभ का सचार किया।
उस समय अग्रेजी का प्राबल्य, हिन्दी-शब्दकोष का दौर्बल्य और
उर्दू भाषा का सर्वत्र प्रवेश देखकर हिन्दी भाषा को व्यापक बनाने
की चिन्ता से भट्ट जी ने हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का जिसे खड़ी बोली
कहते हैं प्रचार करना शुरू किया। उसमें चलतापन, विविध भाव,
प्रकाशिनी क्षमता, और स्वच्छन्दता पैदा करने के लिए पर्याप्त परिश्रम
किया। उस समय तक हिन्दी में पडिताऊपन, व्रज या पूर्वीय भाषा