दृढ और पवित्र मन २६ प्रोत रहते हैं वैसा ही सब पदार्थो का ज्ञान मन में प्रोत-प्रोत है। अर्थात् मन जब अकलुपित और स्वस्थ है तभी विविध ज्ञान उसम उत्पन्न हाते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी घोडो को अपने आधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको अच्छे रास्ते पर ले चलता है वैसे ही मन हमे चलाता है। तात्पर्य यह कि मन देह रथ का सारथी है और इन्द्रियाँ घोड़े है-चतुर सारथी हुआ तो घोड़े जब कुपन्थ पर जाने लगते है तब लगाम कड़ी कर उन्हे रोक लेना है । जब देखता है रास्ता साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है वैसा ही मन करता है । जिस मन की स्थिति अन्तःकरण मे है जो कभी बुढाता नही जो अत्यन्त वेग गामी है वह मेरा मन शान्त व्यापार वाला हो-~- यज्जाग्रतो दूरसुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरं गम ज्योतिषा ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसकल्पमस्तु । चक्षु आदि इन्द्रियाँ इतना दूर नहीं जाती जितना जागते हुये का मन दूर से दूर जाता है और लौट भी आता है। जो देव अर्थात् दिव्य ज्ञान वाला है। आध्यात्मिक सम्बन्धी सूक्ष्म विचार जिस सन मे आसानी से आ सकते है । प्रगाढ निद्रा का सुपुति अवस्था मे जिस का सर्वथा नाश हो जाता है। जागते ही जो तत्क्षण फिर जी उठता है। वह मेरा मन शिव सकल वाला हो अर्थात् सदा उसमे धर्म ही स्थान पावे पाप मन से दूर रहे। मन के बरावर चंचल मसार में कुछ नहीं है। पतञ्जलि महामुनि ने उसी चचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला। यूरोप वाले हमारी और और विद्याओं को तो खीच ले गये पर इस योग दर्शन और फलित ज्योतिष पर उनकी दृष्टि नही गई सो कदाचित् इसी लिये कि ये दोनों अाधुनिक सभ्यता के साथ जोड नही खाते । इस तरह के निर्मल मन वाले सदा पूजनीय हैं। जिन के मन में किसी
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