पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२० भट्ट निबन्धावली ब्राह्मण जो निलाम हो कठिन से कठिन तपस्या और उत्कृष्ट विद्या उपार्जन करते थे सो इसीलिये कि वे अपनी तपस्या और विद्या के द्वारा प्रजा के कल्याण की सामर्थ्य प्राप्त करें । अब वे ही ब्राह्मण निपट स्वार्थ-लम्पट हो अात्मत्यान की गन्ध भी अपने में नही रखते और जैसा कदर्य और स्वार्थान्ध ये हो गये वैसा चार वर्ण में दूसरे नही । आत्मत्याग की वासना से दूसरे का उपकार सोचना कैसा ? यही चाहते हैं कि प्रजा को मूर्ख किये रहैं जिसमे इनके नेत्र न खुलने पावे नही तो हमारे दम्भ की सब कलई खुल जायगी ? इसी तरह पहिले क्षत्रिय प्रजा की रक्षा के लिये शत्रु के सामने जा कूदते थे और युद्धक्षेत्र मे अपना जीवन हाम कर देते थे अब क्षत्री भी वैसे नही देखे जाते जिनमे अात्मत्याग की वासना बन रही हो । साराश यह कि देश के कल्याण के लिये आत्मत्याग हमारे लिये वैसी ही आवश्यक है जैसी आत्मनिर्भरता । जातीयताभिमान या कौमियत का होना इन्ही दोनो की युगल जोड़ी के आधीन है बिना जिनके हम और और गुणों से भरे-पूरे होकर भी भीरु, कायर, क्रूर, कुचाली, अशक्त, असमर्थ आदि बदनामी की माला पहिने हैं, जब कि और और लोग अनेक निन्दित आचरण के रहते भी सभ्यता की राह दिखनाने वाले हमारे गुरु बनते हैं सो इसी युगल जोड़ी के प्रताप से। - नवम्बर, १९९३