पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१३९

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३४-सोना मै समझता हूँ सोने के समान दूसरा सुख कदाचित न होगा । भौति भांति के व्याधि-ग्रसित मनुष्य जन्म में यदि कोई सच्चा सुख ससार मे है तो सोने मे है। किन्तु वह सुख तभी मिलता है जब सोने का ठीक ठीक बर्ताव किया जाय। इस सोने को श्राप चाहो जिस अर्थ मे लीजिये निद्रा या धन बात वही है फर्क सिर्फ इतनाही है कि रात का सोना मन को मन माना मिल सकता है धातु वाला सोना सब के पास उतनेही अन्दाज़े से नही आता। दूसरे इतने परिश्रम से मिलता है कि दांतों. पसीने आते हैं । हम अपने विचार-शील पढने वालो से पूछते हैं सोने के इन दो अर्थों मे आप किसे अच्छा समझते हैं ? क्यों साहब रात वाला सोना तो अच्छा है ना ? इस लिए कि यह कगाल या धनी सब को एकसा मयस्सर है। धनी को मखमली कोच पर जो निद्रा आवेगी कगाल को वही ककड़ों पर । कहा भी है- 'निद्रातुराणां नच भूमिशैया" जिससे सिद्ध होता है कि जो प्रकृति-जन्य पदार्थ हैं उसके मुकाबिले कृत्रिम बनावटी की कोई कदर नहीं है; जैसा मलयाचल की त्रिविध समीरण के आगे खस की टट्टियों से आती हुई थरमेंटीडोट की हवा को कभी आप अच्छा न कहियेगा। किन्तु फिर भी जैसा हम ऊपर कह पाए हैं कि सोने के ठीक ठीक बर्ताव ही से सब सुख मिल सकते हैं। इसके ठीक ठीक बर्ताव में गड़बड़ हुआ कि यही सोना पारका जानी दुश्मन हो जायगा और सकार के स्थान में आपको रकारदेश तब सूझने लगेगा; पर किफायत और उचित बर्ताव इसका रखिये तो सोना और सुगन्ध वाली कहावत सुगठित होगी। एक सोने वाला जुनारी एक बार बहुत सा