भा निबन्धावली यह भक्ति बानर के हाथ मे मणि के सदृश हुई। अब इस भक्ति में दंभ जितना समा गया उतना चित्त की सरलता, अकौटिल्य और सचाई नही पाई जाती । भक्ति मार्ग के स्थापित करने वाले महाप्रभुत्रों के समकालीन भक्त जनों में सच्ची भक्ति का पूर्ण उद्गार था; उन महा- स्मात्रों का कितना विमल चित्त था; अकुटिल भाव के रूप थे: यही कारण है कि उन्हे भगवान् का साक्षात्कार हुआ। मीराबाई, सूरदास, कुंभनदास, सनातन गोस्वामी आदि कितने महा पुरुष ऐसे हो गये जिन के बनाये भजन और पदो मे कैसा असर है जिसे सुन चित्त आर्द्र हो जाता है । मुल्की जोश की कोई बात तो इन लोगों में भी न थी उसकी जड़ ही न जानिये कब से हिन्दू जाति के बीच से उखड़ गई पर परमार्थ साधन और प्रार्जव के तो वे सब लोग स्तम्भ-सदृश हो गये। अब ऐसे लोग इस भक्ति मार्ग में क्यो नहीं होते यही एक पक्का सबूत है कि अब इसमें भी केवल ऊपरी ढोग-मात्र रह गया । वास्तविक कोई बात न बच रही जिससे हमारे हिन्दू धर्म के विरोधियों को यह कहने का मौका अलबत्ता मिला कि यहाँ आध्यात्मिकता कुछ नही है। दुनिया भर को अध्यात्म का रास्ता दिखानेवाला भारत प्राध्यात्मिक विषय से शून्य है । ऐसा कहने और मानने वालो की कुण्ठित-बुद्धि को हम कहाँ तक पछताय ? तवारीखो से सावित है कि ईसा और महम्मद श्रादि यहाँ का करण-मात्र पाय सिद्ध हो गये। वही भारत के सन्तानो को समय के अलावल से यह सब सुनना पड़ता है; सात समुद्र के पार से श्राय विदेशी लोग अब हम शान देने और सभ्यता सिखाने का दावा नाध २२ है लाचारी है। मार्च १६०३
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