२७-ग्राम्य जीवन । मनुष्य के लिये ग्राम्य-जीवन मानो प्रकृति देवी की शुद्ध प्राकृतिक अवस्था का आदर्श स्वरूप है । अर्थात् (नेचर) प्रकृति के साथ पार्ट) बनावट ने जब तक बिलकुल छेडछाड़ नहीं किया उस दशा में प्रकृति देवी का कैसा स्वरूप रहता है ग्राम्य जीवन मे यह हमारे सामने आइना सा रख दिया गया है। अपने लेखों मे हम इसे कई बार सिद्ध कर चुके हैं कि हमारे प्राचीन आर्य प्रकृति के बड़े भक्त थे; वे प्रकृति के स्वाभा. विक रूप को अपनी हिकमत अमली के द्वारा कुरूप या उसे बदलना नहीं चाहते थे । इस आधुनिक पश्चिमी सभ्यता से उनकी पुरानी सभ्यता बिलकुल निराले ढंग की थी। यह हम कभी न मानेगे कि यूरोप के बड़े नामी विद्वान् दार्शनिक और वैज्ञानिकों की भांति भाफ और बिजली तथा अनेक रासायनिक परिवर्तन मे क्या-क्या शक्तियां हैं, जिन्हें काम मे लाय मिट्टी का पुतला आदमी कहाँ तक तरक्की कर सकता है; जिस तरक्की को साधारण बुद्धि वाले हम लोग दैवी शक्ति या दैवी घटना कहेगे उन पुराने पार्यों को न सूझी हो। किन्तु उन्होंने जान बूझ इसे बरकाया कि ऐसा होने से हमारी माननीय प्रकृति (पॉल्यूटेड) दूषित हो प्रत्यवाय मे जितना उस प्राकृतिक परिवर्तन से लाभ उठाने की सभावना हम रखते हैं उससे दो चन्द हमारी हानि प्रत्यक्ष है। हमारी मन्द बुद्धि मे कुछ ऐसा ही स्थिर हो गया है कि यह प्लेग, हैज़ा चेचक आदि का भयकर उपद्रव जो प्रति वर्ष किसी न किसी रूप में नदी के प्रवाह के समान फैल देश के देश को उजाड़ डालता है; दूसरे जल वायु की स्वच्छता और शुद्धता सकुचित होती जाती है; यह सब उसी के छेड़ने का परिणाम है। बड़े-बड़े शहरों की घनी बस्ती के दूषित जल वायु का बुरा असर जो भात-भौत के रोग पैदा करने का मानोचश्मा
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