कष्टात्कष्टतरतुधा चाहती है। कवि कहता है धूलि "खाक" को भी जब इतना शान है तो उस मनुष्य से धूलि ही भली जो अपमान सहकर भी निर्विकार जैसे का 'तैसा बना रहता है। इतना ही होता तो इनकी यह दशा क्यों होती कि इस समय भूमण्डल पर कोई जाति नहीं है जो इतने दिनों तक अपमान कैसा वरन् गुलामी की हालत मे धौल खाते खाते जन्म का जन्म बीत गया और चेत न आई सिर नीचा किये सबर को अपना दीक्षा-गुरू मान,सब सहते चले जाते हैं। जिन्हे गुलामी मिलते न जानिये कितनी शताब्दी बीत गई जो इनकी नस नस मे व्याप्त हो गई इसी से सेवकाई का काम ये बहुत अच्छा जानते हैं और अपनी स्वामि- भक्ति के बड़े अभिमानी भी हैं । मालिक बनना न इन्हे आता है न स्वामित्व की जितनी बात और जितने गुण हैं वे इनके मन में-धसते हैं न पाकलान्त इनके सुधरने की कोई आशा पाई जाती है। केवले दास्य-भाव होता तो कदाचित् मिट जाता और फिर से इनमें नवजीवन श्रा जाता । पुराने ब्रिटन्स चार सौ वर्ष लों रोमन्स लोगों की गुलामी के बाद फिर जो कम क्रम से स्वच्छन्द होने लगे तो कहाँ तक उन्नति के शिखर पर चढ़े कि अब इस भूमण्डल पर उसके समान कोई जाति नही है और इंगलैड इस समय सब का शिरोमणि हो रहा है । पर यहाँ तो दूसरा कोढ इनके साथ परिवर्तन विमुखता का लग रहा है । मनु के समय जो दो पहिये का छकड़ा निकला उसमे फिर अब तक कुछ अदल बदल न हुई । शायद इसके बराबर का ऐसा ही कोई दूसरा पाप हांगी कि बाप दादा के समय की प्रचलित रिवाज में परिवर्तन किया जाय। जो कुछ दोष उसमे आ गया है उसे मिटाय संशोधन करना मानों अपने लिये नरक का रास्ता साफ करना है, उसका यह लोक-परलोक दोनों गया दाखिल समझो इत्यादि बातों का खयाल कर तुषा को कष्टात्कटतर कहना हिन्दुस्तान के लिये सब भाँति सत्य और उचित मालूम होता है। मई, १९०३ भ०नि०-७
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