४८ भट्ट-निबन्धावली हो रहा है। यहाँ चारों उपमा कड़ी के समान एक दूसरे के साथ जुटी । हुई हैं ।, वाल्मीकि के सुन्दरकाण्ड मे, इस प्रकार की उपमा तथा मालोपमा वहुत हैं । यथा-
(हंसो यथा राजति पंजरस्था सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः । वीरो. यथा गवि तक जरस्थश्चन्द्रोपि वनाज तथाम्बरस्यः ।) (शिलातलं प्राप्य यथा मृगेन्द्रो महारण प्राप्य यथा गजेन्द्रः । राज्यं । • समासाद्य यथा नरेन्द्रस्तथा प्रकाशो विरराजचन्द्रः) इत्यादि । चन्द्रालोक मे उपमा का क्या स्वरूप है उसे भी दिखाते हैं- उपमान अर्थात् अधिक गुण वाले चन्द्र चंदन कमल आदि उपमेय. अर्थात् वर्णनीय पदार्थ मुख श्रादि हीन गुणवाले। इन हीन गुणवालों' का जिसम विशेष गुणवाले से सादृश्य दिखाया जाय वह उपमा है। अब उपमान उपमेय साधारण धर्म अर्थात् जिस बात मे दोनों का साहश्य दिखाया जाय और इव तुल्यवत् यथा आदि उपमा के द्योतक ' शब्द जहाँ हों वह पूणोपरग है । इन चारों में से एक या दो या तीन बात के न होने से लुप्तोपमा कही जाती है। यथा-(पुरवचस्य नोऽयं कीतो भीडमगरासने) बोलने में बृहस्पति, कीर्ति में अर्जुन और बाण-विद्या में भीष्म है । यहाँ समान इव तुल्य आदि पद प्रत्यक्ष नहीं कहा किन्तु उनके समान हैं। यह अर्थ नन्तर्गमित है, इसे वाचक लुमोमा कहेंगे। "गाम्भीर्य गरिमा तस्य सत्यं गंगा भुजंगपत् । । दुरालाका स समरे निदाघाम्बर रखवत "'. इसकी गंभीरता और गरमाई सत्य-मत्य समुद्र के समान है । जेठ-. वैशाख के सूर्य के समान उसे लड़ाई के मैदान में कोई नहीं देख स्यता । या चारों वात प्रत्यक्ष कही गई है इसलिये वह गोपमा। . (कृष्ट रवालीसा संपरायपरिममन् । प्रत्याधि संनया या बनान्तन सामा)