३८ . भट्ट-निबन्धावली • . जितने खाद्य पदार्थ हैं उन का स्वाद या जायका जिला के अग्र- भाग से क्षण भर के संयोग का है, गले के नीचे उतरा कि स्वादिठ और वेलज्जत भोजन दोनों एक-ले है। श्रास्वाधस्य हि सर्वस्य जिह्वाने क्षणसंगमः। काठनाडीमतीतं च सर्व कदशनं सगम् ॥ केवल स्वाद चखना जीभ का फायदा हो सो नहीं वरन् शरीर के, और - और अंग की अपेक्षा इसके गुण या दोष भी सबसे अधिक प्रबल है । वडे से बड़ा फायदा और बड़े से बड़ा नुकसान दोनों इसके द्वारा हो सकते हैं। गाँठ का एक पैसा भी बिना गॅवाये मीठी , जवान लाखों का फायदा सहज में कर सकती है-- . "कागा काको धन हरै कोयल काको देय । मीठो वचन सुनाय के यश अपनो कर लेय।" नुकसान भी आदमी कडई या बदजबानी से इतना उठाता है कि सब उमदा सिफतों के होते भी लोग कटुभाषी या बदजवान के पास जाते हिचकते हैं, कटहा कुत्ता सा वह सबों से वरकाया जाता है। जवान को समस्त सभ्यता और शाइस्तगी का सारांश कहना अनुचित नहीं है। अब तक जो कुछ तरक्की संसार में हुई है उसका द्वार : जवान ही है। इन्सान और हैवान में यही तो अन्तर है कि जानवर इम लोगों की तरह अपने खयाल जवान से कहकर नही अदा कर सकते, नहीं नो और सब इन्द्रियों के लालन-पालन में आहार निद्रा भय मैथुन आदि के द्वारा पशु और मनुष्य की समता होने में कौन-सा अन्तर बच रहा । लिख कर अक्षरबद्ध रख छोड़ने का क्रम तो बहुत दिनों के बाद निकला। प्रारम्भ से जबान से कहना और कान से सुन उने याद रखना ही बहुत दिनों ना जारी रहा। ज्यों - ज्यों लीग अधिक सभ्य होवे गये, हिन्दी की चिन्दो निकालने लगे। नव वे की सूज जो जयान में करे गये उनपर भाष्य शरह श्रीर कमेंटरी होती
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