पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/२९

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४-ईश्वर भी क्या ही ठठोल है ! लोग कहेंगे इसे कुछ ख़फगान हो गया है इस उन्नीसवीं सदी के फैशन के अनुसार नास्तिक बनने का हौसिला चरोया है जो उस अगम अपार अणोरणीयान् महतो महीयान् की ,शान मे भी ऐसी बेअदबी और ढिठाई के साथ कुफ्र का कलसा कह रहा है । जी हो पर मुझे तो बहुत से अस्तव्यस्त कारखाने देख कुछ ऐसा ही ज़ी में भासती है कि वह या तो कुम्भकरण का जेठा भाई बनने की हवस बुझाय रहा है या यदि सब अस्तव्यस्त कारखाने ईश्वरता के निदर्शन हैं तो वह धन- घोर नींद में सो रहा है। या जागता है तो कोई बड़ा ही ठठोल . दिल्लगीवाज मसखरा है नहीं तो बेफिक्र और असावधान होने में तो कोई शक नहीं है। . जिस कसौटी, परिभाषा और .सूत्र के अनुसार हमलोग आपस मे एक दूसरे को जॉचते और परखते हैं वहीं परिभाषा यदि वहाँ भी लगाय उसे परखे तो उनकी ईश्वरता की सब कलई खुल जाय और दुनिया के हालात देख अवश्य चित्त में यही समाय कि वह कोई बड़ा ही अनोखा खेलवाड़ी है । सब भांति स्वतंत्र आप एक बड़ा नट नागर बना बैठा है और इस संसार को एक नाट्यशाला की रङ्गभूमि वनाय जैसा चाहता है वैसा खेल खेला करता है। भला.यह मसखरा- पन नहीं तो और क्या है कि मनुष्य एक तो निपट परतन्त्र उसमें भी उसका मन ऐसा नाजुक और कमजोर कर दिया गया पर मुकाविले के लिये लड़ाई इसकी उन दुर्घट अजेय विषयवासना के साथ ठान दी गई जो शिकारी जानवरों की तरह सभी इसे अपने कब्जे मे लाय नष्ट- भ्रष्ट किया चाहते हैं और इन लुटेरों से बचने के लिये जो सिपाही विवेक इसके साथ कर दिया गया है वह न जानिये किस अन्धे ताखाने में पड़-पड़ा सो रहा है कि प्रतिक्षण मन बेचारे पर क्या क्या श्राफतें