पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/२६

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१० . भट्ट-निबन्धावली । माशूकी का चसका दूबा, विषम-भाव और मन की कुटिलाई ज्ञान- • शक्ति बढ़ने के साथ ही साथ नित-नित अधिक होती गई। हौले-हौले पूरी तरुनाई तक पहुँच नीचे को खिसकने लगे, गदहपचीसी को नाप चेहलसाली को भी टॉक अधेड़ की गिनती में प्रागये। बस अब खिसके सो खिसके, बाल चाँदी होने लगे, सौ-सौ तरह, पर खिताब कर पुराने ठिकरे पर नई कलई की भाँति पहले का-सा कुदरती रंग फिर लाया चाहते हैं किचकिचाते हैं बार-बार सोचते हैं कि नई जवानी और चढ़ती उमर का जोश तरोताजा हो जाता । बालों ही के सुफैद हो । जाने के गम में हुवे बैठे थे कि दाँत जो हीरे की दमक को भी दवाते हुये मोतियों की लड़ियों की तरह सोह, रहे थे कगारे पर के रूख की भॉति एक-एक कर गिरने लगे । मुख के भीतर थोड़ी-थोड़ी दूर पर मानो विन्ध्यपर्वत का एक-एक खड्डा-सा खड़ा कर दिया गया। उधर नेत्र ने भी जवाब दिया, चश्मे की हाजत हुई, दिमाग कमजोर पड़ गया । हाफिजा दुरुस्त न रहा । जो बात पहले एक बार के कहने या सुनने से अकिल की सराय में मानो सदा के लिये टिकसी गई थी उसे रूठे पाहुने की भांति यार-बार बुलाते हैं, घोखते रहते हैं, पर । सिवाय उचट जाने के बुद्धि मे किसी तरह ठहरती ही नहीं। ।। "प्राप्ने खचिहिते ते मरणे नहि नहि रक्षनि तुकृत करणे" इतने में कान भी मान लाये, मुंह पर सिकुडन अाने लगी, जाडो को छोड़ छोड़ कर मांस और चिमड़ी ठौर-ठौर इकट्ठी हो शरीर समथर मैदान में जगह-जगह टीले ने खड़े हो गये। । अतिनेष्टा स्मतिर पदामचलिता द्विजाः । वाक्यं किमनु- प्राप्तम्- श्रन्तु यो ही होते-होते सार सत्तर अस्मा पहुँचे, दिन करीब , श्रागये, मद वाय रह गये। "राम नाम सरन दे दो पार निरय है | "भूतानि काना पचतीति ।