परंपरा मचाते हैं, किन्तु घर की पुरानी बुढिया ने जहाँ एक बार डाट के "दुर मुये कह दिया तहाँ सब जोश उतर गया-इत्यादि कितनी कुरीते परंपरा की आड़ में ऐसी बद्धमूल हो गई हैं कि हटाये नहीं हटती, तकरीर और मस्तिष्क का दखल वहीं होने ही नहीं पाता। अस्तु । अन्त में फिर भी हम इस परंपरा को धन्यवाद देगे सो इसलिये कि नई तालीम के प्रवाह के झोंक में देश का देश इसी ताक में लगा हुआ है कि किस तरह हम जाति-पाति के झगड़ों से निकल भागें। अपने मन की जो अभी छिप के करते हैं जाहिरा करने लगें और आजाद हो खुल खेले। इस दशा में वचा खुचा हमारा हिन्दूपन चाहो इसे बुग कहो या भला इसी परंपरा के सहारे पर टिक रहा है। जिन वैदिक ऋषियों का यह चलाया है उनमे शुद्धभाव रहा तो यह वृक्ष पुराना पड़ने पर भी एक बार फिर भी हरा-भरा हो लहलहा उठेगा। पर ऐसा कब होगा यह कौन जान सकता है ? "कालोसायं निरवधिविपुला च पुची । नवस्र १६०४
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परंपरा