पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१४७

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लोक-एषणा लगी है कि इसे देंगे तो यह चार भले मानुखों के बीच जो रियासत की नाक थामे हुये हैं, बैठता है, वहाँ जाकर हमारा नाम करेगा। अब बतलाइये दान की वह वात कहाँ रही कि जिसे तुम्हारा दाहिना हाथै . दे उसे वायाँ हाथ न जाने। . अब और दूसरे विषय को लीजिये । आप वड़े नैष्ठिक और श्रोत्रिय हैं; त्रिकाल-मन्थ्या, गंगा-स्नान, वलिवैश्वदेव, अमिहोत्र, सब भरपूर निबाहते हैं, पर जी से यह सब इसलिये है कि बड़े रईस, राजा, महा-. राज या फसें और हम उन्हें अपना चेला मूड गुरू बन खूब पुजावें। हम काशी, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, अयोध्या श्रादि स्थानों को बार-बार

असीसते हैं कि भला इस नई सभ्यता के जमाने मे दंभदेव'को कराव-

लम्ब तो दिये हैं । दंभ का रूप विस्तारपूर्वक जानना चाहते हो तो प्रबोध-चन्द्रोदय नाटक निकाल के पढ़ो। अव रहो भक्ति और श्रद्वा की बात सो उन दोनों की निवास-भूमि ८४ कास व्रज में जा के देखिये, चित्त प्रसन्न हो जायगा और यही-जी चाहेगा कि हम भी ब्रज- भूमि मे क्यों न पैदा हुये कि कृष्ण भगवान् की लीला का अनुभव ' करते हुये अहर्निश आमोद-प्रमोद किया करते- . "परस्परं भोज्यसहर्निशं रतिः खोमिः समं पानमनन्त सौहृदम् । .श्रीगोकुलेशार्पितचेतसां तृणां रीतिः परा सुन्दरि सारवेदिनाम "॥ . हमारे पढ़नेवाले समझते होंगे, यह ता बड़ा ही आजाद भूरी सुनाने वाला, मुंहफट है, बड़ा देश का हित चाहने वाला है। यह कोई क्या जाने, यहाँ देश को भार में झोंके वैठे हैं, लोकरञ्जना तो हमारा सिद्धान्त हो रहा है। मन मे यही भावना लगी है कि हमारे लेख से लोग रीमें, ग्राहक बढ़े, टेंट गरम हो । पर किस्मत की कम- नसीबी, हिन्दी के दुर्दिन और हिन्द-समाज को विद्वत्ता को कहाँ तक सराह; २३ वर्ष बीत गये, ललाते ही रहे । हत्तरी लोक-रञ्जना चएडा- लिनी की। इसीसे उसमे धिनाय आज हमने उसी को घर दावा।