. भट्ट-निवन्धावली . . जनूनी, सौदाई, दीवाना, महा घिनौना, असभ्य, बेवकूफ, गाउदी कहलाता हुआ इम घृणित लोक-रंजना से छुटकारा रहे वह अच्छा।
- किंतु साक्षात् दंभ के पूर्णावतार वनकर महामहोपाध्याय, पटशास्त्री..
सिद्धेश्वर, योगी होना अच्छा नहीं। .. बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि लौकिक से अपने को छुटते न देख लोग दीवाने, सौदाई, महा मैले और घिनौने बन गये हैं । राजा 'सगर के पुत्र असमजस, ऋषभदेव, दत्तात्रेयः श्रादि महात्माओं की पुरातन कथायों का वास्तविक भागथं इस लोक-रञ्जना से छुटकारा 'पाने ही का है। सच तो यों हैं कि हम इस लोक-एपणा के लिये जो इतनी चेष्टा करते हैं, सो इसका यही प्रयोजन है कि समाज में हमारी - सुर्खरूई रहे, कुल की कान निभती जाय, कोई नाम न धरे । जो इस ' लोक-लाज को न डरा. जिसने बेशर्मी का जामा पहिन लिया, उसे इस लौकिक से सरोकार ही न रहा। खोजते-खोजते ऐसे दो ही पाये गये, '. एक तो वे जो तक दुनिया-सिद्ध और महात्माओं में शामिल हैं; दुसरे दिवाल-दारिये। इन दिवालियों को भी हम उन सिद्धों से कुछ कम - नहीं समझते; क्योकि इज्जत, श्राबरू या मोती की सी बाब उतर जाने का ख्याल, जिस पर लोक-एषणा का सतखण्डा महल बना हुश्रा- है, दिवाले के साथ ही साथ निकल भागता है। हम अपर कह श्राये हैं, शुद्ध पारलौकिक कामों को भी लोक- . रखना ने अपने जाल में फंसा रखा है। आप इस समय राजा बलि- से महादानी कलियुग के कर्ण वन पुश्तहापुश्त का संचितं धन बहाये । देते हो और "मैं बड़ा उदार दानी हूँ", इस भावना से दिमाग में. : फूले नहीं समाते, पर सोचिये तो सही कि शुद्ध परमार्थ के खयाल से किसी काम में किसी को श्रापने कभी एक पैसा भी दिया है। जिरें । भारी-भरकम चेहरे-मुहरे से दुरस्त मोटे-ताजे, कह देखा उन्हें ' , श्रापने भी उलचना प्रारम्भ कर दिया। इसलिये कि यहाँ तो यह लो