पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१२६

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११२ . भट्ट-निबन्धावली स्वछन्द और किसी के अधीन नहीं है । सारांश यह कि दुनियादार या लौकिक मनुष्यों से अलौकिक या लोकोत्तर मनुष्य मे जो भेद है उसकी जड़ एक ऐने भ्रम मे उलझा हुई है जिसका सुलझाना या हल करना असम्भव है। इसी से कवि की यह उक्ति है- "लोकोत्तराणां चेतांसि कोनुविज्ञतुमहति । । सच पूछिये तो इसके सुलझाने के माने ही यह होंगे कि कि संसार के जो नियम आज तक, चले आये हैं, आप उनको उलट, कर रख दो। ऐसे लोग जो अन्ध परम्परा से लग हो लोगों के हजारों ताने सहते हैं और भेड़ियाधसान के बीच बदनाम है उनको इस सब का . प्रतिफल क्या ? इसके उत्तर मे हम यही कहेगे कि-ऐसे मननशील' लोकोत्तर महात्मानों के लिये क्या यह कोई थोड़ा लाभ है कि उनके मनन की 'अविच्छिन्न "धारा मे दुनियादारी के पचड़े में न फसने के . कारण जरा भी विक्षेष नहीं होने पाता। यह क्या कोई लाभ ही यहाँ तक तो हमने इस विभेद का दुःखात्मक चित्र खींचा। अब . आगे बढ़ते हूँ। ऊपर जो उदाहरण दिया गया है वह इसी बात का कि लोकोत्तर और लौकिक मनुष्यों में जो भेद है वह केवल किसी विशेष कारण से है । अब यदि कोई ऐसा मनुष्य हो जो स्वभाव ही स भोजी प्रकृति का है, दुनियादारी के छक्के पंजे नहीं जानता, सबसे निराला है, 'र्थात् उत्तमोत्तम गुण उस मे स्वभाव ही से ऐसे है जा उसकी समस्त ज्ञान-इन्द्रियों के प्रधान विषय | मान लीजिये एक मनुष्य ऐसा है जिसका वात्मगौरव का बड़ा ख्याल है, प्रौदार्य उसमें पहने सिरे का है, महानुभूनि, नौगों के साथ हमदरदी, मैत्री और प्रेम . प्रागी मा: है। अब आप समझ सकते हैं कि ऐमैं एक गामा पुरुष पो मूद्धमानु धान करनवाती विवेचना-शकिऔर अनुभव कितना तीक्षा होगा और सर्वसाधारण के लिये या कितना सुख-दुः१ अनुभव