दल का अगुवा MR. 'विवाह बहुत करेगे; पर करके कुछ न दिखावेंगे । सच मानिये, बाहर विवाह की जड कभी नहीं कर सकती, जब तक कन्या में रजोदर्शन की कैद कायम है। प्रस्तु। ___ अव यहां पर विचार यह है कि अगुवा कैसा होना चाहिये ? श्रगुशा में सबसे बडी बात यह है कि वह अपने मन मे कोई काम न, कर गुजरे, जब तक सवकी राय न ले ले और सबों का मन न टटोल ले । दूसरे उसमें शान्ति और गमखोरी की बड़ी जरूरत है। जिस काम - के बनने पर उपका लक्ष्य है उस पर नजर भिड़ाये रहे, दल में कुछ , लोग ऐसे हैं जो उनके लक्ष्य के बड़े विरोधी है और वे हर तरह पर उस काम को बिगाड़ा चाहते हैं । अगुवा को ऐसी-ऐसी वात कहेंगे और खार दिलायेंगे कि वह उधर से मुंह मोड़ बैठे और क्रोध में . आप सर्वथा निरस्त हो जाय । ऐसी दशा में यदि उसमे शान्ति और गमखोरी न हुई तो बस हो चुका, काहे को वह उस काम के साधने में कभी कृतकार्य होगा। फिर अगुश अपने सिद्धान्त का इद और मुनसिफा मिजाज हो । कहावत है--"सुनै सब की करै अपने मन की" क्षुद्र से तुद्र का भी निरादर न करे, अपने मन्तव्य के विरुद्ध राय देनेवालों को ऐसे ढंग से उतार लावे कि "साँप मरै और लाठी न टूटै', सिवा इसके अगुवा को सर्वप्रिय हर-दिल-अजीज होना चाहिये । जब तक सब लोग उसे प्यार न करेंगे और चित्त से उसका अादर न करेंगे तब तक उसके कहने को स्वीकार कैसे कर सकते हैं ? किसी का आदर तभी होता है जब मन मे उसको रहने की जगह हो। अगुवा के लिये चरित्र का शुद्ध हाना बड़ी भारी बात है। जो चरित्र के शुद्ध नहीं जिनका चाल-चलन दगीला है वे कैसे दूसरों के चित्त पर अमर पैदा कर सकते हैं ? विशेष कर सामाजिक मामलों में जो समाज का अग्रणी हो उसे चरित्र का पवित्र होना ही चाहिये। जैसा धर्म सम्बन्ध में हमारा अगुना गुरु होता है। बहुधा गुरु वही
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